शुक्रवार, 13 मई 2011

Chaahat

कल जब सुबह होगी,
फिर उठूँगा
कुछ नया करुगा 
पर ये तो मैंने कल भी सोचा था
और शायद कल भी सोचूंगा ,
स्खलित नहीं हुई है रूह मेरी 
गहरा समंदरहै उतरने को अभी,
पर ये तो मैंने कल भी सोचा था
और शायद कल भी सोचूंगा,
कब तृप्ति मिलेगी ?
कब तृष्णा बुझेगी ?
कब कब्र होगी "बस एक और " की तमन्ना ?
पर ये तो मैंने कल भी सोचा था
और शायद कल भी सोचूंगा,

3 टिप्‍पणियां:

  1. bahut hi shandar kavita hai sir... badhai ho ... aap ubharate hue rachanakar hai.

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  2. aakhir maine tumhe dhundh liya..kitni shandar rachna hai..dil ko choone wali..keep it up

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  3. "ये तो मैंने कल भी सोचा था
    और शायद कल भी सोचूंगा"

    इंसानी फिदरत की बहुत कम शब्दों में सटीक प्रस्तुति

    "कब कब्र होगी 'बस एक और' की तमन्ना?"
    - शायद कभी नहीं

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